Monday, January 5, 2009

One Translated poem form Dalit literature by me "पतझड़ के दिन"

पतझड़ के दिन

किसी दिन सूरज ऐसे भी निकलता है………।
की उसकी भी आँखे डबडबा जाती हैं।
घर का चुल्हा भी गुँगा हो जाता है उस समय
अंगीठी भी ठंडी हो जाती है राख में।
फिर होता है…..
गुदड़ी में एक पेट अंधेरे में लिपटा हुआ,
पीठ को साथी बनाए।
चहचहाते पंछिओं का गान आँखों से बहता हुआ।
चिथडों में बंधा प्यार भी डंठल बन जाता उस समय ।
और फिर…
कोने की कुटिया पर छायाधर भी
बादल के संग बरसता रहता है।


वामन नींबालकर के “मराठी दलित कविता संग्रह”
’गावकुसाबाहेरील कविता’ से अनुदित
अनुवादक :- प्रकाश कांबले
भारतीय भाषा केंद्र,
जे.एन.यू., दिल्ली

No comments:

समय