Friday, February 13, 2009

ebadat and // One poem on Raj Thakare // by ShaShikala Rai

इबादत
जो आदमी औरों से प्यार से बोले
भुला के भेद सभी दिल के राज भी खोले
उसी पे उस्के रहम की बरसतीं है बारिश
जो हंस के कष्ट सहे फिर भी कुछ नहीं बोले।
चलो भगवान को ऐसे भी मनाया जाये
किसी रोते हुये बच्चे को हंसाया जाये
जिनकी आखों से सच्चाई की चमक आती है
जिनके होंठों से मुहब्बत की दुआ आती है
ऐसे मणिहारों को सीने से लगाया जाये।
जमीर जिनके तआस्सुब ने ढांक रक्खे हैं
और खुदगर्जी के पर्दे भी चढ़ा रक्खे हैं
प्यार से उनके जमीरों को जगाया जाये।
जिस सियासत से गुलामी के अंधेरे आये
देश दर देश पे बरबादी के साये आये
उस सिआसत को मिल जुल के हटाया जाये।
(-अनाम एक पत्रिका से)
वही नहीं
शाम होने पर
पक्षी लौटते है
पर वही नहीं जो गये थे

रात होने पर फिर से जल उठती है
दीपशिखा
पर वहीं नहीं जो कल बुझ गयी थी

सूखी पड़ी नदी भर भर जाती है
किनारों को दुलराता है जल
पर वही नहीं जो
बादल बनकर उड़ गया था
हम भी लौटेंगे
प्रेम में कविता में घर में
जन्मान्तरों को पार कर पर वही नहीं
जो यहाँ से उठकर गये थे-
(कहीं नहीं वहीं – अशोक वाजपेयी)

सबसे सुंदर और भयानक बात यही थी
कि शब्द का अर्थ शब्द ही थे। या की है।

(कहीं नहीं वहीं – अशोक वाजपेयी)


One poem on Raj Thakare by ShaShikala Rai
शशिकला राय
राज ठाकरे के नाम प्रार्थना-पत्र

राज ठाकरे मुझे अनुमति दो
मैं खुल कर अपनी जान मुम्बई
के लिए रो सकूँ।
घुट-घुट कर रोयी हूँ
मयूर धर्मदेव और राहुल के लिए करकरे सालसकर कामटे के लिए
बहुत जोर से चीख कर रोना चाहती हूँ

मुम्बई छोड़ चुकी हूँ। राज ठाकरे।
क्या करँ मुम्बई मुझे छोड़ती हो नही?
मैं चाहती हूँ, मैं प्यार कर सकूँ
बनारस लखनू को
अली सरदार ज़ाफरी की तरह
महसूस करती हूँ, कितना कठिन है ख़ुद को बदलना
घायल मुम्बई फिर भी कितनी दिलकश लगती है।

भैया की सात वर्षीय लड़की का टूटा हाथ
तुम्हारी सलामी के लिए उठ रहा है
डरा हुआ बढ़ई
राज ठाकरे जीवेत शरद: शतम
का बोर्ड बना रहा है।
रिक्शे की सीट पर पड़ी लाबारिस लाश
तुम्हारे सजदे में लुढ़्क पड़ी है।
भाषा की रातके देवता तुम खुश क्यों नहीं होते ?
बिना किसी क्षोभ के तख़्तियों के अक्षर बदल गये हैं
धूमिल पागल है, देवता उसे माफ कर दो
और उसे छोड़ो भी
वह अपने किए की सजा पा ही गया
कहता था, भाषा को ठीक करो।
प्रभु भाषा को ठीक होने के कई अवसर आएँगे।

अपनी-अपनी गठ्री उठाए हम लौट जाएँगे
राज ठाकरे बहीं, जिसे तुम हमारा प्रान्त कहते हो
एक वायदा करो प्रभु मुम्बई की देह प्र
कोई खरोच नहीं लगने दोगे।
महाविद्यालयों में द्म तोड़ती मराठी को
फिर नयी सा~म्स दोगे।
विदर्भ के किसानों की मृत्यु का हिसाब लोगे
कौलांजी दुबारा नहीं घटने दोगे
मिल मजदूरों की जमीन प्र महल नहीं बनाओगे
मुम्बई को आतंकवादियों के कहर से बचाओगे।
मुम्बई को अपनी जान कहने का हम नहिं छीनोगे।
इस रिश्ते को अवैध नहीं मानोगे।
तुम्हारे आदेशानुसार प्रभु कोशिश होती
पतिब्रता की तरह केवल-केवल
बनारस को प्यार क्रुँ
उसी की उम्र के लिए करवा का व्रत रखूँ
मुम्बई की छवि भी फ़्रदय के भीतर न लाऊँ
पर इस व्यभिचारी मन का क्या करुँ प्रभु
जो मुम्बई से इश्क़ कर बैठा।
अपनी इसी जान को लम्बी उम्र चाहती हूँ
अपनी जान के लिए जान भी देना चाहती हूँ
मुम्बई के लिए हक अदा करने कि
मोहलत दो प्रभु
पिता जल्दी चले गये। एक ही भाई है
उसकी उम्र दान में दे दो प्रभु
ज़िदगि भर तुम्हारे दानी होने का यश गाऊँगी
मैं किसी राम, ख़ुदा, जीजस को नहीं जानती
एकमेव तुम्ही भगवान हो, हे करुणानिधान
द्या करो। द्या करो। द्या करो।

शशिकला राय
हिंदी विभाग, पुणे विश्वदिद्यालय
पुणे – ४११ ००७
मो. - ०९३२४९७४६५६

Thursday, February 12, 2009

हिंदी-युग्म वेब साईट पर प्रकाशित कविता एवं गज़ल

प्रिय मित्रों यह कविता हिंदी-युग्म वेब साईट पर प्रकाशित हैं।
जिसे मै अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर रहा हूँ।



अभिमान है,
स्वाभिमान है,
हिंदी हमारा मान है ।

जान है,
जहान है,
हिंदी हमारी शान है ।

सुर, ताल है,
लय, भाव है,
हिंदी हमारा गान है ।

दिलों का उद्गार है,
भाषा का संसार है,
हिंदी जन-जन का आधार है ।

बोलियों की झंकार है,
भारत का शिंगार (शृंगार) है,
हिंदी संस्कृति का अवतार है ।

विचारों की खान है,
प्रेम का परिधान है,
हिंदी भाषाओं में महान है ।

बाग की बहार है,
राग में मल्हार है,
हिंदी हमारा प्यार है ।

देश की शान है,
देवों का वरदान है,
हिंदी से हिंदुस्तान है ।

==== कवि कुलवंत सिंह ======

भाषाओं में एक ये भाषा,
कहते जिसे हम हिंदी हैं।
इतिहास इसका सदियों पुराना,
माथे पर सजती बिंदी है।।

देश के आधे हिस्से में,
आज भी है ये बोली जाती।
पर "बूढ़ा" कह कर हिंदी को,
रह-रह नब्ज़ टटोली जाती।।

भारी जन समूह की प्रतिनिधि को,
न मिला राष्ट्रभाषा का सम्मान।
विदेशी पट्टी आँखों में बाँध,
करते रहे हैं हम अपमान।।

झूठी शान का पहन के हार
अंग्रेज़ी फ़ैशन से सब हैं ग्रस्त।
सब ज़ोर से "ए बी सी" सुनाते हैं,
पर "क ख ग" में होते हैं पस्त।।

अपनी ही भाषा बोलने से जब,
लोग कतराने लगते हैं।
विदेशी को सर बिठाया जाता है,
और हिंदी से शरमाने लगते हैं।।

तब स्वयं को उपेक्षित देखकर,
"हिंदी" कोने में दुबक जाती है।
अश्रु इतने बहते हैं कि,
आँखें सूखी पड़ जाती हैं।।

उन पथराई नज़रों से तब,
एक आवाज़ आती है।
अब शांत नहीं रहना है मैंने,
कहकर फ़ैसला सुनाती है।।

जब विदेशियों ने भी मुझको,
नम्रता से स्वीकारा है ,
तो अपने देशवासियों को मैंने,
स्वयं पर गर्व करना सिखलाना है।

हिंद देश के तुम वासी हो,
हिंदी से करो न परहेज।
ये तुम्हारी ही विरासत है,
विनती है, रखना सहेज।।

====== तपन शर्मा ======

आओ-आओ सुनो कहानी हिन्दी के उत्थान की
हिन्दी की जय बोलो हिन्दी बिन्दी हिन्दुस्तान की ।
हिन्दी को नमन--हिन्दी को नमन ।

सबकी भाषा अलग-अलग है, अलग अलग विस्तार है
भावों की सीमा के भीतर, अलग-अलग संसार है ।
सब भाषाओं के फूलों का, इक सालोना हार है ।
अलग-अलग वीणा है, लेकिन एक मधुर झंकार है ।
भाषाओं में ज्योति जली है, कवियों के बलिदान की ।
हिन्दी की जय बोलो हिन्दी भाषा हिन्दुस्तान की ।

हिन्दी की गौरव गाथा का नया निराला ढंग है ।
कहीं वीरता, कहीं भक्ति है, कहीं प्रेम का रंग है ।
कभी खनकती हैं तलवारें, बजता कहीं मृदंग है ।
कभी प्रेम की रस धारा में, डूबा सारा अंग है ।
वीर भक्ति रस की ये गंगा, यमुना है कायान की
हिन्दी की जय बोलो, हिन्दी भाषा हिन्दुस्तान की ---

सुनो चंद की हुँकारों को, जगनिक की ललकार को
सूरदास की गुँजारों को, तुलसी की मनुहार को
आडम्बर पर सन्त कबीरा की चुभती फटकार को
गिरिधर की दासी मीरा की, भावभरी रसधार को
हिन्दी की जय बोलो हिन्दी-बिन्दी हिन्दुस्तान की
हिन्दी को नमन--हिन्दी को नमन।

भारतेन्दु ने पौधा सींचा महावीर ने खड़ा किया
अगर गुप्त ने विकसाया तो जयशंकर ने बड़ा किया
पन्त निराला ने झंडे को मजबूती से खड़ा किया ।
और महादेवी ने झंडा दिशा-दिशा मे उड़ा दिया
गिरिधर की दासी मीरा के सुनी सरस उद्‌गारों को
देव बिहारी केशव की कविता है प्रेमाख्यान की
हिन्दी की ये काव्य कथा है हिन्दी के गुनगान की

हिन्दी की जय बोलो हिन्दी बिन्दी हिन्दुस्तान की
आओ-आओ सुनो कहानी हिन्दी के उत्थान की।

======== प्रो॰ नरेन्द्र पुरोहित ========




सारी बस्ती निगल गया है


सूरज हाथ से फिसल गया है
आज का दिन भी निकल गया है

तेरी सूरत अब भी वही है
मेरा चश्मा बदल गया है

ज़ेहन अभी मसरूफ़ है घर में
जिस्म कमाने निकल गया है

क्या सोचें कैसा था निशाना
तीर कमां से निकल गया है

जाने कैसी भूख थी उसकी
सारी बस्ती निगल गया है

हिन्दी और हिन्दी दिवस

प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध"
सी.६ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

कहते सब हिन्दी है बिन्दी भारत के भाल की
सरल राष्ट्र भाषा है अपने भारत देश विशाल की
किन्तु खेद है अब तक दिखती नासमझी सरकार की
हिन्दी है आकांक्षी अब भी संवैधानिक अधिकार की !!

सिंहासन पर पदारूढ़ है पर फिर भी वनवास है
महारानी के राजमहल में दासी का वास है
हिन्दी रानी पर प्रशासनिक अंग्रेजी का राज है
हिन्दी के सिर जो चाहिये वह अंग्रेजी के ताज है

इससे नई पीढ़ी में दिखता अंग्रेजी का शोर है
शिक्षण का माध्यम बन बैठी अंग्रेजी सब ओर है
अंग्रेजी का अपने ढ़ंग का ऐसा हुआ पसारा है
बिन सोचे समझे लोगो ने सहज उसे स्वीकारा है

सरल नियम है शासन करता जिसका भी सम्मान है
हर समाज में स्वतः उसी का होने लगता मान है
ग्रामीणों की बोली तक में अब उसकी घुसपैठ है
बाजारों , व्यवहारों में, हर घर में, उसकी ऐठ है

हिन्दी वाक्यों में भी हावी अंग्रेजी के शब्द हैं
जबकि समानार्थी उन सबके हिन्दी में उपलब्ध हैं
गलत सलत बोली जाती अंग्रेजी झूठी शान से
जो बिगाड़ती है संस्कृति को भाषा के सम्मान को

साठ साल की आयु अपनी हिन्दी ने यूँ ही काटी है
हिन्दी दिवस मुझे तो लगता अब केवल परिपाटी है
कल स्वरूप होगा हिन्दी का प्रखर समझ में आता है
अंग्रेजी का भारत के बस दो ही प्रतिशत से नाता है

हिन्दी का विस्तार हो रहा भारी आज विदेशों में
जो बोली औ॔ समझी जाती सभी सही परिवेशों में
बढ़ती जाती रुचि दुनियाँ की हिन्दी के सम्मान में
किन्तु उचित व्यवहार न देखा जाता हिन्दुस्तान में

अच्छा हो शासन समाज समझे अपने व्यवहार को
ना समझी से नष्ट करे न भारतीय संस्कार को
हिन्दी निश्चित अपने ही बल आगे बढ़ती जायेगी
भारत भर की नहीं विश्व की शुभ बिन्दी बन जायेगी

Prof. C. B. Shrivastava "vidagdha"

समय