Friday, January 9, 2009

आखरी ख़त

आखरी ख़त

मेरी जिंदगी की आखरी यह रात
गुरेज पा य रात ही
मेरी मेरी गुरेज पा हयात के सबाते पाकी एक गवाह है
रात तो गवाह है
मुझे खुदा की जुस्तजू न थी
मुझे हयाते जावेंदा की आरजू न थी
मुझे यकीन है कि आदमी कि मौत
उसकी जिंदगी कि इंतिहा का नाम है
मगर यहाँ जिंदगी मुझे बहुत अजीज है
कि जिंदगी सरर का रकस ही सही
मगर वह पल
अगर दबीज जुलामतोम का सीना चाक करके
सैले नूर बन गया
तो आदमी हयात का सुराग पा गया
वह खूं जो दार पर न बह सका
वह खूं रगों में खुश्क होके राऐगां गया*

गालिब :- आखिरे कार न पैदा अस्त के तन फरद
कफे खूने के बड़ा जीनत दारें नदही

अगर तेरे चुल्लू भर खून ने दार को रौनक न बख्शी तो
समाज लो कि यहाँ खून ज़ाया हुआ हुआ और जिस्म में
सूख गया |


BHAGAT SHINH KI CHUCINDA SHAYARI


की तेरे क़त्ल के बाद उसने ज़फा होना
कि उसके जोर पेशमा का पशेमा होना

हैफ एस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ग़ालिब
कोई मुझको यह तो समझा दो कि समझायेंगे क्या

यह न थी हमारी किस्मत जो विसाले यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तेज़ार होता

तेरे बादे पर जिऐं हम तो यह जान छूट जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता

मैं शमां आखिर शब हूँ सुन सर गुज़श्त मेरी
फिर सुबह होने तक तो किस्सा ही मुख़्तसर है

अच्छा है दिल साथ रहे पाशबाने अक़्ल
लेकिन कभी – कभी इसे तन्हां भी छोड़ दे

न पूछ इकबाल का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सरेराह गुज़र बैठा सितमकशे इन्तेज़ार होगा

औरौं का पयाम और मेरा पयाम और है
इश्क दर्दमन्दों का तरज़े कलाम और है

अक्ल क्या चीज़ है एक बाज़ेह का पाबन्दी है
दिल को मुद्दत हुई इस कैद से आज़ाद किया

नशा हो ” कराना तो सबको आता है
मज़ा तो जब है कि कुरतों का थाम ले साकी

कोई दम का मेहमां हूँ ऐ अहले महफ़िल
चरागे सहर हूँ बुझना चाहता हूँ।

बाद निभेगी तेरी हमसे क्योंकि एं वायज़
कि हम तो इसमें मोहब्बत को आम करते हैं
मैं उनकी महफ़िल-ए-इशारत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूँक के दुनिया में नाम करते हैं।

आबी हवा में हरेगी ख़्याल की बिजली
यह मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे न रहे


खुदा का आषिक तू है हजारों बन्दों में फिरते हैं मारे-मारे
मै उसका बन्दा बनूंगा जिसको खुदा के बन्दों से प्यार होगा

मैं चिराग हूँ जिसको फ़रोगेहस्ती में
करीब सुबह, रौशन क्या बुझा भी दिया

तुझे, शाखे-ए-गुल से तोडें जहेनशीब तेरे
तड़पते रह गए गुलज़ार में रक़ीब तेरे।

दहेर को देते हैं कोई दीदा-ए-गिरेबां हम
आखिरी बादल में एक गुजरे गुए तूफां हम

मैं ज़ुल्मते शब में ले के निकलूंगा अपने हद मान्दे कारवां को
शर व फ़ंशां होगी मेरी नफ़श मेरा शोला बार होगा

जो शाख-ए- नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना पाएदार होगा।

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